रेशम में लिपटे हुए, वो करते हैं यूँ,
उलझनों से आज़ादी की ख्वाइश
जैसे लोहे की जंजीरों ने की हो,
अपने ही किसी क़ैदी के.......
रियाही की फरमाइश
वो जो बेजार सा आइना है,
तेरे दीवार की रौनक समेटे
कहीं दफ़्न है, उसके बज़्म में
मेरे माहरूफ़ तेरी,
साज़ की नुमाइश
कभी इत्मीनान में हो तो,
उसकी वो दीवार बदलना
अपनी देहलीज़ से दूर
किसी बेगानी हद में, वरना
फिर शायद,
तुम्हारे अक्स में ही,
क़ैद रह जाए,
तुम्हारी अहमियत के,
राज़ का तज़ुर्बों में ढलना
फिदरत है, ये फिक्र की
वो ज़िक्र के अंदाज़ में,
हर दफा बुनती है तिशनगी
पर फासलों में ही रिहा होती है,
जो क़ैद है, ये अधूरी सी ज़िन्दगी
जाते लम्हों को गुज़र जाने दो,
आते लम्हों पे ठहरना नहीं
स्याही से थोड़ा जूझ लेना,
हो दरकार जो गुमनामी की,
किस्सों से आज़ाद रहना,
जो हरकत में हो ज़िन्दगी
क्यूंकि महरूम रह जातें हैं,
अक़्सर
वो जो क़ैदी वक़्त के हों
हमें ताज्जुब-ऐ-आरुफ़ पे नहीं,
महफूज़-ऐ-मिन्नत से होती है
या तो यूँ करते हों गुफ़्त्गू
अनजान रहके, मैं और तू
की ज़ानिब-ऐ-मंज़िल
किसी ख्वाब सी हो,
जिसपे नुसरत-ऐ-दस्तख़
बेआवाज़ ही हो
क्या मुमकिन होगा?
रौशनी में तपिश ना हो
चाहतों में खलिश न हो,
और, ना रही हो
सिकंदर से,किसी को रंजिश
मुमकिन, इत्तेफ़ाक़ को भी नहीं
की झूठ पे चिलमन ना हो
या फिर,
दस्तूर-ऐ-तजवीज़ में शिकन
मंसूबों को मज़लिस से महरूम रहने दो
दो पल ही है ज़िन्दगी,जरा सुकून रहने दो
उलझनों से आज़ादी की ख्वाइश
जैसे लोहे की जंजीरों ने की हो,
अपने ही किसी क़ैदी के.......
रियाही की फरमाइश
वो जो बेजार सा आइना है,
तेरे दीवार की रौनक समेटे
कहीं दफ़्न है, उसके बज़्म में
मेरे माहरूफ़ तेरी,
साज़ की नुमाइश
कभी इत्मीनान में हो तो,
उसकी वो दीवार बदलना
अपनी देहलीज़ से दूर
किसी बेगानी हद में, वरना
फिर शायद,
तुम्हारे अक्स में ही,
क़ैद रह जाए,
तुम्हारी अहमियत के,
राज़ का तज़ुर्बों में ढलना
फिदरत है, ये फिक्र की
वो ज़िक्र के अंदाज़ में,
हर दफा बुनती है तिशनगी
पर फासलों में ही रिहा होती है,
जो क़ैद है, ये अधूरी सी ज़िन्दगी
जाते लम्हों को गुज़र जाने दो,
आते लम्हों पे ठहरना नहीं
स्याही से थोड़ा जूझ लेना,
हो दरकार जो गुमनामी की,
किस्सों से आज़ाद रहना,
जो हरकत में हो ज़िन्दगी
क्यूंकि महरूम रह जातें हैं,
अक़्सर
वो जो क़ैदी वक़्त के हों
हमें ताज्जुब-ऐ-आरुफ़ पे नहीं,
महफूज़-ऐ-मिन्नत से होती है
या तो यूँ करते हों गुफ़्त्गू
अनजान रहके, मैं और तू
की ज़ानिब-ऐ-मंज़िल
किसी ख्वाब सी हो,
जिसपे नुसरत-ऐ-दस्तख़
बेआवाज़ ही हो
क्या मुमकिन होगा?
रौशनी में तपिश ना हो
चाहतों में खलिश न हो,
और, ना रही हो
सिकंदर से,किसी को रंजिश
मुमकिन, इत्तेफ़ाक़ को भी नहीं
की झूठ पे चिलमन ना हो
या फिर,
दस्तूर-ऐ-तजवीज़ में शिकन
मंसूबों को मज़लिस से महरूम रहने दो
दो पल ही है ज़िन्दगी,जरा सुकून रहने दो
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